जल रहा हूँ परवाने की तरह मगर
फिर भी मै जिंदा क्यों हूँ
मुस्करा रहा हूँ तन्हाई में मगर
फिर भी सीने में दर्द पिघलता क्यों है
ठहर गया हूँ सफ़र में चलते चलते मगर
फिर भी मंजिल मुझे पुकारती क्यों है
एक खवाब सोया है पलकों के किनारे मगर
फिर भी धड़कने नम होती क्यों है
कुछ फासला है दोनों के दर्मिया मगर
फिर भी नज्दिकिया सिसकती क्यों है
उतर रहा है होंठो पे काफिला यादों का मगर
फिर भी दिल गीत गुनगुनाता क्यों है
मिलता है बस एक हमसफ़र मगर
फिर भी मन मुसाफिर-सा क्यों है
खो जाना है किसी के आगोश में मगर
फिर भी तन मिटटी-सा क्यों है
हो जाना है जमी-दोस्श तुफानो से लड़ कर मगर
फिर भी शाखों पे पत्ते लगते क्यों है
होना है जुदा एक दिन दोराहे पे मगर
फिर भी लोग बिछड़ने से डरते क्यों है
कुछ भी नहीं है ज़िन्दगी में मगर
फिर भी मै सतुष्ट क्यों हूँ
एक खालीपन-सा है अहसास में मगर
फिर भी मै खुश क्यों हूँ
अशोक "नाम"
Monday, October 11, 2010
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